भारत वैश्विक संकट कोरोना से गुजर रहा है. पैसे वाले लोग अपने-अपने सहूलियत के हिसाब से गुजर बसर कर रहे है. लेकिन तकलीफ में कोई है तो वो मजदूर और गरीब है. अपने घर से कई सौ और हज़ार किलोमीटर पर लॉकडाउन के कारण फंसे हुए है. रहने और खाने की समस्या सबसे बडी है. सरकार सिर्फ आश्वासन ही देती है. जमीन पर प्रवसियो के लिए कोई राहत का कार्य सरकार के द्वारा होता नहीं दिख रहा है.
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पश्चिम एशिया उलेमा कॉउन्सिल के राष्ट्रीय सचिव और राजनितिक मामलो के जानकार अज़ीज़-ए-मुबारकी कहते है की सभी राज्यों के सरकार भवन राजधानी दिल्ली में मौजूद है. ये भवन काफी बड़े और आलीशान होते है. कई ऐसे भवन भी है जिनमे बड़े-बड़े बगीचे और पार्किंग है. सभी राज्यों के प्रवासी जो दिल्ली में फंसे है क्या राज्य सरकारे उन्हें इन भवनों में नहीं रख सकती है. राज्य अपने अपने प्रदेश के लोगों को खाना और आसरा दे ही सकते थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
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आगे अज़ीज़-ए-मुबारकी कहते है की भले ही ये आपके उन आलीशान भवनों में रखने लायक न हो लेकिन क्या ये अपने बगीचे और पार्किंग एरिया में तिरपाल लगा कर भी रहने लायक नहीं थे?? दूसरी तरफ प्रदेशों के “अनपढ़ मज़दूरों” से कहा जा रहा के तकलीफ़ में वो नोडल अधिकारियो से सम्पर्क करें , E-टिकट बनाये , मैं हेरान हूँ कौन सी दुनिया में रहते हैं नेता लोग, भई साहब अपनी गली से निकल कर बाहर आने से पुलिस कुत्ते की तरह पिट रही है इंसानो को और नेता जी चाहते हैं की नोडल अधिकारियो को शिकायत करें।
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तकलीफ तब ज्यादा होती है जब इनके क़त्ल को त्याग और बलिदान कह कर मामले को रफा-दफा कर दिया जाता है. ऐसा लगता है जैसे नासूर हुआ ज़ख़्म पर किसी ने नामक रगड़ दिया हो. अब भी वक्त है सरकारे यदि चाहे तो प्रवसियो को बिना किसी दुःख और तकलीफ के राज्य वापस लाया जा सकता है. जरुरत है तो सिर्फ अपनी अंतरात्मा को जगाने की.
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