भारत के 11वें राष्ट्रपति और मिसाइल मैन एपीजे अब्दुल कलाम की आज पुण्यतिथि है. अब्दुल कलाम का निधन 27 जुलाई 2015 को मेघालय के शिलांग में हुआ था. गरीबी से निकल कर मिसाइल मैन तक का उनका सफर एक प्रेरणा दायक रहा है.एपीजे अब्दुल कलाम को भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से नवाजा जा चुका है. देश हमेशा उनका ऋणी रहेगा। जानिए उनकी जिंदगी से जुडी कुछ खास बातें।
कौन थे मिसाइल मैन अब्दुल कलाम:
अब्दुल कलाम का जन्म तमिलनाडु के रामेश्वरम में 15 अक्टूबर को हुआ था. उनका परिवार नाव बनाने का काम करता था. कलाम के पिता नाव मछुआरों को किराए पर दिया करते थे. बचपन से ही कलाम की आंखें कुछ बनने का ख़्वाब देखती थी. हालांकि उस वक्त परिस्थियां इतनी अच्छी नहीं थी. वह स्कूल से आने के बाद कुछ देर तक अपने बड़े भाई मुस्तफा कलाम की दुकान पर भी बैठते थे, जो कि रामेश्वरम् रेलवे स्टेशन पर थी. फिर दूसरे विश्व युद्ध के शुरू होने पर जब ट्रेन ने रामेश्वरम् रेलवे स्टेशन पर रूकना बंद कर दिया था, तब अख़बार के बंडल चलती ट्रेन से ही फेंक दिए जाते थे. अब्दुल कलाम भी अख़बार फेकने का काम करते थे.
उनके भाई शम्सुद्दीन को एक ऐसे इन्सान की ज़रूरत थी जो अख़बारोंको घर-घर पहुंचाने में उनकी मदद कर सके, तब कलाम ने यह ज़िम्मेदारी निभाई. जब उन्होंने अपने पिता से रामेश्वरम् से बाहर जाकर पढ़ाई करने की बात कही तो उन्होंने कहा कि हमारा प्यार तुम्हें बांधेगा नहीं और न ही हमारी जरूरतें तुम्हें रोकेंगी. इस जगह तुम्हारा शरीर तो रह सकता है, लेकिन तुम्हारा मन नहीं.
अब्दुल कलाम के मिसाइल मैन बनने का सफर:
कलाम ने 1950 में इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए त्रिची के सेंट जोसेफ कालेज में दाख़िला लिया. इसके बाद उन्होंने बीएससी की. फिर अचानक उन्हें लगा कि उन्हें बीएससी नहीं करना चाहिए था. उनका सपना कुछ और था. वह इंजीनियर बनना चाहते थे. बीएससी करने के बाद उन्होंने ठान लिया कि अब वह किसी भी तरह मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग में एडमीशन लेकर रहेंगे।
विश्वास और मेहनत ही थी कि उन्हें मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग में दाखिला मिल गया. उस वक्त एरोनॉटिकल इंजीनियरिंगकी फ़ीस 1000 रूपये थी. फ़ीस भरने को उनकी बड़ी बहन ने अपने गहने गिरवीं रखे और उन्होंने गिरवीं गहनों को अपनी कमाई से ही छुड़ाने की बात मन में ठानी. इसके बाद पढाई शुरू तो हुई लेकिन कॉलेज में जैसे-जैसे वक़्त बीतने लगा वैसे-वैसे विमानों में उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी. अब पायलट बनने का ख्याल दिल में आया.
कलाम दिल्ली आकर एक जगह वैज्ञानिक के पद पर काम करने लगे तब उनका मासिक वेतन दो सौ पचास रूपये मात्र था. यहां वह विमान बनाने का काम करते थे. फिर तीन साल बाद ’वैमानिकी विकास प्रतिष्ठान’ का केन्द्र बंगलुरू में बनाया गया और उन्हें इस केन्द्र में भेज दिया गया.
इसके बाद उन्हें उन्हें स्वदेशी हावरक्राफ़्ट बनाने की ज़िम्मेदारी दी गई जो काफी मुश्किल मानी जाती थी. लेकिन कलाम ने यह भी कर दिखाया. उन्होंने और उनके सहयोगियों ने हावरक्राफ़्ट में पहली उड़ान भरी. रक्षा मंत्री कृष्णमेनन ने कलाम की खूब तारीफ की और कहा कि इससे भी शक्तिशाली विमान अब तैयार करो. उन्होंने वादा किया कि वह ऐसा करेंगे लेकिन जल्द कृष्णमेनन रक्षा मंत्रालय से हटा दिए गए और कलाम साबह उन्हें दोबारा कमाल कर के नहीं दिखा पाए.
नासा से लौटकर बनाया पहला स्वदेशी उपग्रह ‘नाइक अपाची’ :
कलाम ने ‘इंडियन कमेटी फॉर स्पेस रिसर्च’ का इंटरव्यू दिया. यहां उनका इंटरव्यू विक्रम साराभाई ने लिया लिया और वह चुन लिए गए. उनको रॉकेट इंजीनियर के पद पर चुना गया. यहां से कलाम के ख्वाब को पंख मिला. उन्हें नासा भेजा गया. नासा से लौटने के बाद उन्हें ज़िम्मेदारी मिली भारत के पहले रॉकेट को आसमान तक पहुंचाने की. उन्होंने भी इस ज़िम्मेदारी को पूरी तरह निभाया।
रॉकेट को पूरी तरह से तैयार कर लेने के बाद उसकी उड़ान का समय तय कर दिया गया, लेकिन उड़ान से ठीक पहले उसकी हाईड्रोलिक प्रणाली में कुछ रिसाव होने लगा. फिर असफ़लता के बादल घिर कर आने लगे, मगर कलाम ने उन्हें बरसने न दिया.
रिसाव को ठीक करने का वक़्त न हो पाने की वजह से कलाम और उनके सहयोगियों ने रॉकेट को अपने कंधों पर उठाकर इस तरह सेट किया कि रिसाव बंद हो जाए. कलाम ने रॉकेट को कंधों पर नहीं उठाया था, बल्कि उस ज़िम्मेदारी को अपने कंधों पर उठाया था जो उन्हें नासा से लौटने के बाद दी गई थी. फिर भारत के सबसे पहले उपग्रह ‘नाइक अपाची’ ने उड़ान भरी. रोहिणी रॉकेट ने उड़ान भरी और स्वदेशी रॉकेट के दम पर भारत की पहचान पूरी दुनिया में बन गई.
अब्दुल कलाम की वो खास बाते जो लोगो के लिए बन गयी प्रेरणा:
डॉ कलाम ने कभी अपने या परिवार के लिए कुछ बचाकर नहीं रखा. राष्ट्रपति पद पर रहते ही उन्होंने अपनी सारी जमापूंजी और मिलने वाली तनख्वाह एक ट्रस्ट के नाम कर दी. उऩ्होंने कहा था कि चूंकि मैं देश का राष्ट्रपति बन गया हूं, इसलिए जबतक जिंदा रहूंगा सरकार मेरा ध्यान आगे भी रखेगी ही. तो फिर मुझे तन्ख्वाह और जमापूंजी बचाने की क्या जरूरत
मौका था साल 2013 में IIT वाराणसी में दीक्षांत समारोह का… बतौर मुख्य अतिथि वहां पहुंचे डॉक्टर कलाम ने कुर्सी पर बैठने से मना कर दिया.. क्योंकि वो वहां मौजूद बाकी कुर्सियों से बड़ी थी…कलाम बैठने के लिए तभी राजी हुए जब आयोजकों ने बड़ी कुर्सी हटाकर बाकी कुर्सियों के बराबर की कुर्सी मंगवाई.
डॉ कलाम कितने संवेदनशील थे…इसका वाकया DRDO में उनके साथ काम कर चुके लोग बताते हैं. 1982 में वो DRDO यानी भारतीय रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान में डायरेक्टर बनकर आए थे. DRDO की सुरक्षा को और पुख्ता करने की बात उठी. उसकी चारदीवारी पर कांच के टुकड़े लगाने का प्रस्ताव भी आया. लेकिन कलाम ने इसकी सहमति नहीं दी. उनका कहना था कि चारदीवारी पर कांच के टुकड़े लगे..तो उस पर पक्षी नहीं बैठ पाएंगे और उनके घायल होने की आशंका भी बढ़ जाएगी. उनकी इस सोच का नतीजा था कि DRDO की दीवारों पर कांच के टुकड़े नहीं लगे