झारखंड की आत्मा कहे जाने वाले इस व्यक्तित्व ने आज हमेशा के लिए दुनिया को अलविदा कह दिया। लेकिन क्या उनका जाना सिर्फ एक व्यक्ति का जाना है? या यह पूरे आदिवासी चेतना, एक आंदोलन, एक विश्वास की आवाज़ का मौन हो जाना है?
दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में सुबह 8:56 बजे डॉक्टरों ने शिबू सोरेन को मृत घोषित कर दिया। 81 वर्षीय शिबू सोरेन बीते कुछ हफ्तों से बीमार चल रहे थे। उन्हें किडनी में इन्फेक्शन और ब्रोंकाइटिस की शिकायत थी, जिसके चलते उन्हें दिल्ली लाया गया था। इलाज के दौरान हालत बिगड़ती चली गई। उनके अंतिम क्षणों में झारखंड के मुख्यमंत्री और बेटे हेमंत सोरेन, बहू कल्पना सोरेन, और छोटे बेटे बसंत सोरेन उनके साथ मौजूद थे। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और झारखंड के राज्यपाल संतोष गंगवार भी अस्पताल जाकर हालचाल ले चुके थे।
शिबू सोरेन का जीवन एक सतत संघर्ष की कहानी है। झारखंड को अलग राज्य बनाने की लड़ाई में उनकी भूमिका ऐतिहासिक रही है। वे झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के संस्थापक थे और तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने। सात बार लोकसभा सांसद, और 2004 में केंद्र सरकार में कोयला मंत्री के रूप में उन्होंने काम किया। लेकिन उनकी सबसे बड़ी पहचान एक नेता नहीं, दिशोम गुरू यानी आदिवासी समाज के मार्गदर्शक के रूप में रही।
शिबू सोरेन का परिवार आज भी झारखंड की राजनीति में प्रभावशाली भूमिका निभा रहा है। उनके बेटे हेमंत सोरेन राज्य के मुख्यमंत्री हैं, जबकि बहू कल्पना सोरेन विधायक हैं। छोटे बेटे बसंत सोरेन भी दुमका से विधायक हैं। हालांकि, उनके बड़े बेटे दुर्गा सोरेन का पहले ही निधन हो चुका है, जिनकी पत्नी सीता सोरेन अब बीजेपी में शामिल हैं। इस परिवार ने सत्ता, संघर्ष और वैचारिक मतभेदों की पूरी यात्रा को जिया है, लेकिन शिबू सोरेन के सिद्धांतों की छाया हर निर्णय में बनी रही।
शिबू सोरेन के निधन से झारखंड में गहरा शोक है। रांची से लेकर दुमका, गढ़वा से लेकर नेमरा तक, हर गली और हर गांव आज मौन है। जिनके संघर्ष से एक नया राज्य बना, जिन्होंने भूमि, जल और जंगल के लिए आवाज़ उठाई, जिन्होंने हर आदिवासी को हक दिलाने की लड़ाई लड़ी — उनका जाना सिर्फ एक युग का अंत नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी का ट्रांसफर है।