मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के तुरंत बाद, 29 दिसम्बर 2019 को हेमंत सोरेन ने पत्थलगड़ी से सम्बंधित सभी पुलिस केस को वापस लेने की घोषणा की थी. इस घोषणा की बड़े पैमाने पर प्रशंसा की गयी और उसका स्वागत हुआ. पूर्व में रघुबर दास की भाजपा सरकार ने पत्थलगड़ी आन्दोलन के विरुद्ध बड़े पैमाने पर पुलिसिया कार्यवाई की थी.
11 दिसम्बर को झारखंड जनाधिकार महासभा ने पत्थलगड़ी मामलों के स्थिति की समीक्षा और झारखंड में हो रहे मानवाधिकार हनन के घटनाओं की विवेचना के लिए राँची में एक सेमिनार का आयोजन किया. इसमें अनेक जन संगठनों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भाग लिया (सूचि संलग्न). पत्थलगड़ी मामलों के कई पीड़ित और पश्चिमी सिंहभूम ज़िले के चिरियाबेरा गाँव के पुलिस/ CRPF द्वारा प्रताड़ित ग्रामीणों ने भी सेमिनार में भाग लेकर अपनी आपबीती सहभागियों के साथ साझा किया. सरकार ने आन्दोलन से जुड़े आदिवासियों व अनेक पारंपरिक ग्राम प्रधानों के विरुद्ध कई मामले दर्ज किया था जो तथ्यों पर आधारित नहीं थे. पुलिस ने लगभग 200 नामज़द लोगों और 10000 से भी अधिक अज्ञात लोगों पर कई आरोप दर्ज किया, जैसे भीड़ को उकसाना, सरकारी अफसरों के काम में बाधा डालना, समाज में अशांति फैलाना, आपराधिक भय पैदा करना और देशद्रोह भी शामिल था
मुख्यमंत्री द्वारा घोषणा करने के एक साल बाद भी ये सभी पुलिस केस वापस नहीं लिए गए फलस्वरूप अभी भी कई आदिवासी और ग्राम प्रधान जेलों में ही हैं. सूचना के अधिकार के माध्यम से प्राप्त जानकारी के अनुसार पत्थलगड़ी सम्बंधित ज़िलेवार FIR हैं : खूँटी -23, सराइकेला-खरसाँवा – 5 और पश्चिमी सिंघभूम – 2 (कुल 30). ज़िला समिती, जिसके सदस्य होते हैं – DC, SP और सार्वजनिक अभियोक्ता, ने मात्र लगभग 60% मामलों के वापसी की अनुशंसा की है (कोचांग सामूहिक बलात्कार वाले दो केस भी वापसी की सूची में नहीं है). साथ ही खूँटी ज़िला समिती ने सात मामलों में सिर्फ़ धारा 124A/120A/B को हटाने की अनुशंसा की है. राज्य गृह विभाग ने ज़िला समितियों द्वारा भेजे गए अनुशंसा पर कार्यवाई के बारे में सिर्फ़ इतना कहा है कि ‘कार्यवाही हो रही है’.
हेमंत सोरेन सरकार द्वारा पत्थलगड़ी मामलों की वापसी की घोषणा ने यह इंगित किया था कि यह सरकार मानती है कि पिछली रघुवर दास सरकार ने पत्थलगड़ी आन्दोलन को सही से समझा नहीं था. साथ ही, वर्तमान सरकार पिछली सरकार द्वारा पत्थलगड़ी आन्दोलन के विरुद्ध की गयी गलत कार्यवाई को सुधारना भी चाहती है. लेकिन ज़िला समिति द्वारा केवल आधे मामलों की वापसी की अनुशंसा एवं मामलों की वापसी में हो रही विलम्ब यह दर्शाती है कि हेमंत सोरेन सरकार की राजनैतिक मंशा अभी तक ज़मीनी स्तर पर कार्यवाई में नहीं बदली है. विधान सभा चुनाव प्रचार के दौरान महागठबँधन दलों ने हेमंत सोरेन के अगुवाई में ज़ोर-शोर से तत्कालीन राज्य सरकार के दमनकारी नीतियों और आदिवासियों पर हो रहे लगातार हमलों (पुलिसिया दमन, लिंचिंग आदि की घटनाओं आदि) के विरुद्ध आवाज़ उठाई थी. लेकिन यह देख कर निराशा होती है कि हेमंत सोरेन सरकार ने न तो पूर्व के मामलों पर निर्णायक कार्यवाई की न ही वर्तमान में ऐसे कृत्यों को रोकने की इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया है.
पिछले शासन के दौरान पत्थलगड़ी सम्बंधित राजकीय दमन से पीड़ित ग्रामीणों को अभी तक न्याय नहीं मिला. घाघरा गाँव की गर्भवती महिला असृता मुंडू को सुरक्षा बलों द्वारा पीटा गया, उसकी बच्ची विकलांग पैदा हुई, लेकिन अभी तक उसे कोई सहायता प्राप्त नहीं हुआ. हिंसा के दोषियों को (बिरसा मुंडा और अब्राहम सोय जैसे मारे गए आदिवासी के मामले भी) भी अभी तक चिन्हित कर क़ानून के हवाले नहीं किया गया है. पत्थलगड़ी आन्दोलन से जुड़े कई लोगों, पारंपरिक ग्राम प्रधान व सामाजिक कार्यकर्ताओं जैसे अमित टोपनो, सुखराम मुंडा व रामजी मुंडा की इस दौरान हत्या हो गयी थी लेकिन अभी तक स्थानीय पुलिस द्वारा दोषियों को नहीं पकड़ा गया है.
पिछले एक साल में भी मानवाधिकार हनन की घटनाएँ लगातार घटती रही. इनमें सबसे चर्चित घटना थी पश्चिम सिंहभूम ज़िले के चिरियाबेरा गाँव की है जहां 20 आदिवासियों को जून 2020 में CRPF के जवानों ने नक्सल सर्च अभियान के दौरान बेरहमी से पीटा था जिनमें तीन बुरी तरह घायल हुए. ग्रामीणों का दोष यही था की वे CRPF के जवानों को हिंदी में जबाब नहीं दे पा रहे थे. उन्हें माओवादी कहा गया और डंडों, जूतों, कुंदों से पीटा गया. हालाँकि पीड़ितों ने पुलिस को अपने बयान में स्पष्ट रूप से बताया था कि सीआरपीएफ ने उन्हें पीटा था, लेकिन पुलिस द्वारा दर्ज प्राथमिकी में कई तथ्यों को नज़रंदाज़ किया गया है और हिंसा में सीआरपीएफ की भूमिका का कोई उल्लेख नहीं है.. अभी तक इस FIR को सुधरा नहीं गया है, CRPF के लोगों पर कोई कारवाही नहीं की गई और पीड़ितों को मुआवज़ा नहीं दिया गया है. इस सम्बन्ध में कई बार उपायुक्त, पुलिस अधीक्षण व महानिदेशक से मिलकर कार्यवाई की अपील की गयी है. पिछले एक साल के दौरान राज्य के विभिन्न भागों में सुरक्षा कर्मियों द्वारा आम जनता पर हिंसा की वारदातें होती रही है.
साथ ही, राज्य में आदिवासियों, गरीबों व सामाजिक कार्यकर्ताओं पर माओवादी का फ़र्ज़ी आरोप लगाने का सिलसिला जारी है. पिछले कई सालों से UAPA के मामलों में लगातार वृद्धि हो रही है. यह दुखद है कि पुलिस द्वारा UAPA के बेबुनियाद इस्तेमाल कर लोगों को परेशान करने के विरुद्ध हेमंत सोरेन सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया है. बोकारो के लालपनिया के कई मज़दूरों व किसानों, जो आदिवासी-मूलवासी अधिकारों के लिए संघर्षत रहे हैं, पर माओवादी के आरोप व UAPA के तहत मामला दर्ज किया गया है. वे पिछले कई सालों से बेल के लिए एवं अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
झारखंड सरकार से महासभा माँग करती है कि:
- पत्थलगड़ी से सम्बंधित मामलों को अविलम्ब वापस लिया जाय, खूँटी के मानवाधिकार हनन के मामलों में कार्यवाई की जाय और पीड़ितों को मुआवज़ा मिले.
- चिरियाबेरा घटना की न्यायिक जाँच हो, दोषी CRPF पुलिस और प्रशासनिक कर्मियों पर हिंसा करने के लिए कार्यवाई हो और पीड़ितों को उचित मुआवज़ा दिया जाय.
- स्थानीय प्रशासन और सुरक्षा बलों को स्पष्ट निर्देश दें कि वे किसी भी तरह से लोगों, विशेष रूप से आदिवासियों, का शोषण न करें. मानव अधिकारों के उल्लंघन की सभी घटनाओं से सख्ती से निपटा जाए. नक्सल विरोधी अभियानों की आड़ में सुरक्षा बलों द्वारा लोगों को परेशान न किया जाए. मानवाधिकार हनन के मामलों को सख़्ती से निपटाया जाय. आम जनता को नक्सल-विरोधी अभियान के नाम पर बेमतलब परेशान न किया जाय.
- स्थानीय प्रशासन और सुरक्षा बलों को आदिवासी भाषा, रीति-रिवाज, संस्कृति और उनके जीवन-मूल्यों के बारे में प्रशिक्षित किया जाय और समवेदनशील बनाया जाय.
- लिंचिंग से सम्बंधित सुप्रीम कोर्ट के अनुदेशों को सही मायनो में लागू किया जाय, दोषियों को बचाने वाले पुलिस और अधिकारियों पर कार्यवाही हो, पीड़ितों को मुआवज़ा मिले और लिंचिंग के विरुद्ध कठोर क़ानून बनाया जाय.
- निर्जीव पड़े हुए राज्य मानवाधिकार आयोग को पुनर्जीवित किया जाय और यह जनता के लिए सुलभ हो. मानवाधिकार उल्लंघन मामलों के लिए स्वतंत्र शिकायत निवारण तंत्र बनाया जाय.