स्वतंत्रता संग्राम में आदिवासी। भारतीय इतिहासकारों नेशन 1857 की क्रांति को सवतंत्रता संग्राम का पहला आंदोलन बताया है हकीकत में सन् 1857 से 100 साल पहले आदिवासियों ने स्वतंत्रता आंदोलन शुरु कर दिया था “क्रांति कोष” के लेखक श्री कृष्ण “सरल” ने राष्ट्रीय आंदोलन का काल सन् 1957 से सन् 1961 तक माना है।
स्वतंत्रता आंदोलन में आदिवासियों की भूमिका समझने के लिए उसकी पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है यह सच है कि आदिवासियों द्वारा चलाए गए आंदोलन स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार स्थानीय स्तर पर ही लड़ी गए थे पूरे भारत की स्वतंत्रता के लिए आदिवासियों ने कभी एकजुटता के व्यापक पैमाने पर अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध नहीं लड़े इसका प्रमुख कारण है आदिवासी कई जातियों समूह में बंटा हुआ है आज भी बंटा हुआ है भारत में 428 जनजाति अधिसूचित है जबकि इनकी वास्तविक संख्या 642 है।
जनसंख्या की दृष्टि में एशिया में सबसे ज्यादा आदिवासी भारत में निवास करते हैं 2011 के जनगणना के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत आदिवासी जातियां हैं 19 राज्यों और 6 केंद्र शासित प्रदेशों फैले हुए हैं। आदिवासियों का अंग्रेजो के खिलाफ ज्यादातर विद्रोह केंद्र सीमावर्ती प्रदेश बिहार और झारखंड रहे हैं। स्वतंत्रता के हर आंदोलन में अंग्रेजी हुकूमत के साथ-साथ सामंतो और साहूकारों से भी संघर्ष करना पड़ा था। आदिवासियों का आंदोलन ज्यादा व्यापक था।
आदिवासियों को स्वतंत्रता आंदोलन की भारी कीमत चुकानी पड़ी। अंग्रेजों के पास भारी संख्या में सुसज्जित सेना थी। आधुनिक हथियार-बंदूकें, तोपें, गोला और बारूद था। सामन्तों के पास प्रशिक्षित पुलिस फोर्स थी। साहूकारों के पास धन-दौलत की ताकत थी। इनके मुकाबले में आदिवासियों के पास युद्ध के परंपरागत साधन तीर-कमान, भाले,गांड़ासे, और बरसे थे। ये लोग आर्थिक रुप से कमजोर थे, संसाधनों की कमी थी इसलिए हर आंदोलन में आदिवासियों का जान-माल की भारी क्षति उठानी पड़ी। सन 1855 में संथाल के आदिवासी वीर योद्धा सिद्धू और कान्हू का विद्रोह हुआ। इसमें 30-35 हजार आदिवासियों ने भाग लिया। आंदोलन हिंसक रूप ले लिया, अनेक अंग्रेज सैनिक और अधिकारी मारे गए।
अंत में पूरे क्षेत्र को सेना से सुपुर्द कर दिया गया। मार्शल लॉ लागू कर दिया गया। देखते ही गोली मारने का आदेश सेना को दे दिए गया। कत्लेआम हुआ।इसमें 10 हजार आदिवासी मारे गए। रमणिका गुप्ता तथा माता प्रसाद ने इन आंकड़ों की पुष्टि की है इसी तरह सन 1913 में मानगढ़ में हुए आदिवासी आंदोलन में भी 15 सौ आदिवासी शहीद हुए थे। ये आंकड़े बताते हैं कि आदिवासी आंदोलनों में लाखों आदिवासियों की जाने गई।
भारत में सबसे पहले आदिवासियों ने स्वतंत्र आंदोलन सन् 1780 में संथाल परगना में प्रारंभ किया। दो आदिवासी वीरों तिलका और मांझी ने आंदोलन का नेतृत्व किया। यह आंदोलन सन् 1790 तक चला इसे “दामिन विद्रोह”कहते हैं इस विद्रोह से अंग्रेजी हुकूमत तरबतर हो गया था। पकड़ने के लिए मि. क्लीवलैंड कि नेतृत्व में सेना भेजी गई परंतु तिलका ने अपने तीर से क्लीवलैंड के सीने में तीर मार कर जान ले लिया तब अंग्रेजी सैनिकों ने छापामार युद्ध के तहत तिलका को पकड़कर पेड़ से लटका कर फांसी दे दिया। “दलित दस्तक”के अनुसार दिल का स्वतंत्रता आंदोलन का पहला शहीद माना जाना चाहिए परंतु 1857 की क्रांति में शहीद हुए मंगल पांडे को स्वतंत्रता संग्राम का पहला शहीद घोषित कर दिया। जबकि सच्चाई यह है कि मंगल पांडे से 70 साल पहले स्वतंत्रता आंदोलन में तिलका शहीद हुआ था।
बता दें कि सन् 1780 से सन् 1857 तक आदिवासियों ने अनेक स्वतंत्रता आंदोलन किए। सन 1780 का “दामिनी विद्रोह” तिलका मांझी ने चलाया, सन् 1855 का “सिद्धू कान्हू विद्रोह” सन् 1858 से 1832 तक बुधु भगत द्वारा चलाया गया “लरका आंदोलन” बहुत प्रसिद्ध आदिवासी आंदोलन है जिनका जिक्र इतिहास में नहीं मिल पाता है।
पूरे भारत में आदिवासियों ने अपने में क्षेत्र में जल जंगल जमीन का छीनने का प्रयास जब जब हुआ तब उन लोगों ने अपने हक अधिकार के लिए आंदोलन किए परंतु आज भी उन्हें अपने हक अधिकार के लिए वंचित रखा जा रहा है।
क्या है आदिवासियों का मौजूदा हालात
25 जुलाई 2022 को बीजेपी के समर्पित राष्ट्रपति उम्मीदवार द्रोपति मुर्मू ने राष्ट्रपति पद के लिए शपथ ग्रहण ली। बीजेपी ने कहा कि देश के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति को देश के सर्वोच्च पद पर हम सुशोभित करने वाले पार्टी हैं। और इस के लिए खुद का पीट बहुत थपथपा परंतु 9 अगस्त 2022 को विश्व आदिवासी दिवस पर देश के आदिवासी राष्ट्रपति द्रोपति मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से कोई बधाई संदेश/संबोधन नहीं किया जाता है। तो यूं कहें कि सब राजनीतिक करण का अंकगणित है। झारखंड के वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और उसके विधायकों और मंत्रियों के द्वारा बराबर बीजेपी पर यह आरोप लगाते हुए कह रहे हैं कि 2019 से जब आदिवासी पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा को झारखंड की जनता ने नेतृत्व करने का मौका दिया है तब से आदिवासी मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को परेशान किया जा रहा है।
कभी CBI,ED तो कभी लोकपाल के द्वारा परेशान किया जाता है। बीजेपी के प्रदेश नेताओं के द्वारा बराबर भाषणों में सरकार गिराने की बात कहते रहते हैं बीजेपी के केंद्र सरकार पर विपक्ष के द्वारा हमेशा कहा जा रहा है कि भाजपा कि केंद्र सरकार द्वारा देश के सरकारी संस्थाओं और एजेंसियों का गलत तरीके से इस्तेमाल कर सत्ता को गिराने का प्रयास करते हैं यह लोग कभी आदिवासियों का भला नहीं चाहते हैं। यदि चाहते तो सन् 1951 की जनगणना के बाद देश के आदिवासियों को धर्म के आधार पर “अन्य कॉलम” में डाल दिया गया. जबकि 22 साल के झारखंड में ज्यादातर सत्ता बीजेपी के पास रही। वर्ष 2011 की जनगणना में झारखंड में सरना मतावलंबियों ने लगभग 40 लाख से अधिक संख्या में खुद को सरना के रूप में दर्ज किया। झारखंड राज्य आदिवासी बहुल राज्य है और उनके सम्मान और पहचान के लिए मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने “सरना धर्म कोड” को विधानसभा में मोहर लगाकर केंद्र के पास भेज दिया तो केंद्रों ने क्यों रोक रहा है।