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OBC Reservation: कर्नाटक में ओबीसी के आरक्षण पर राज्यपाल सहमत, झारखंड को और कितना करना होगा इंतज़ार

OBC Reservation: कर्नाटक में ओबीसी के आरक्षण पर राज्यपाल सहमत, झारखंड को और कितना करना होगा इंतज़ार 1

OBC Reservation: झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार ने विधानसभा से ओबीसी समुदाय को नौकरी और शिक्षा में हिस्सेदारी बढ़ाने को लेकर अध्यादेश पारित कर राजभवन को भेजा है. राजभवन की ओर से अब तक इस मामलें को लटकाने को लेकर राजनितिक गलियारों में चर्चा है की जानबूझ कर देर की जा रही है. ताकि हेमंत सरकार को इसका श्रेय लेने से रोका जा सके, परंतु हेमंत सरकार ने आरक्षण विधेयक ला कर ओबीसी समुदाय में अपनी मजबूत पकड़ बना ली है.

झारखंड की सत्ता से भाजपा जब से बाहर हुई है अपने राजनितिक वजूद एवं एक मजबूत नेता की तलाश में जुट गई है. बाबूलाल मरांडी ने भले ही अपनी पार्टी का विलय भाजपा में कर दिया हो परंतु इसका कोई खासा फायदा होता नहीं दिख रहा है. बीते 7 सालों में हेमंत सोरेन की जो छवी और लोकप्रियता बढ़ी है वह झारखंड के सभी राजनितिक दलों और उनके नेताओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती साबित हुई है.

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कर्नाटक सरकार ने हाल ही में विधानसभा में विधेयक पेश किया है, जिसमें एससी और एसटी कोटा बढ़ाने का प्रस्ताव है. ये विधेयक अक्टूबर 2022 के उस अध्यादेश यानी ऑर्डिनेंस की जगह लेगा जिसमें एससी आरक्षण 15 प्रतिशत से बढ़ाकर 17 प्रतिशत और एसटी आरक्षण तीन प्रतिशत से बढ़ाकर 7 प्रतिशत कर दिया गया है. कर्नाटक के राज्यपाल ने इस अध्यादेश को मंजूरी दे दी है और 1 नवंबर, 2022 से ये लागू भी हो गया है. इस अध्यादेश के लागू होने से पहले कर्नाटक में 32 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण था और SC, ST, OBC का कुल आरक्षण 50 प्रतिशत था, जो अब 56 प्रतिशत हो चुका है. कर्नाटक में एससी और एसटी काफी समय से मांग कर रहे थे कि उन्हें आबादी के अनुपात में आरक्षण दिया जाए. कर्नाटक सरकार ने उनकी मांग पूरी की है.

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संविधान में इस बात का कोई उल्लेख नहीं है कि सरकारी नौकरियों या शिक्षा में आरक्षण की लिमिट क्या हो. संसद ने भी इस बारे में कोई कानून नहीं बनाया है. इस बारे में अगर कोई मतलब निकालना चाहे तो उसे अनुछेद 355 में ये तर्क मिलेगा कि आरक्षण लागू करते समय प्रशासनिक कार्यक्षमता का ध्यान रखा जाना चाहिए. हालांकि ये कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है और यहां प्रशासनिक कार्यक्षमता पर असर नापने का जिम्मा सरकारों पर छोड़ दिया गया है. अभी तक ऐसा कोई अध्ययन भी नहीं हुआ है कि आरक्षण से कार्यक्षमता पर बुरा असर पड़ता है.

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50 प्रतिशत की सीमा का पहली बार ठोस जिक्र बालाजी बनाम मैसूर राज्य केस में 1962 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आया. लेकिन वो भी सलाह की शक्ल में. फैसले में कहा गया कि ‘अनुच्छेद 15(4) और 16(4) के तहत दिए जाने वाले आरक्षण की एक वाजिब सीमा होनी चाहिए… मोटे तौर पर कहा जाए तो ये सीमा 50 प्रतिशत से कम होनी चाहिए. लेकिन दरअसल आरक्षण कितना हो ये हर मामले में स्थितियों पर निर्भर होगा.’

वर्ष 1993 में मंडल आयोग की सिफारिशों पर आए इंदिरा साहनी केस में 50 प्रतिशत की सीमा को पहली बार लागू किया गया. संविधान पीठ ने अपने फैसले में लिखा है कि ‘अनुच्छेद 16(4) के तहत दिया जाने वाला आरक्षण 50 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होना चाहिए. हालांकि ये देश और देश के लोग बहुत विविधतापूर्ण हैं इसलिए आरक्षण की सीमा पर बात करते हुए इस बात की अनदेखी नहीं करनी चाहिए.’

इंदिरा साहनी फैसले के बाद से तमाम हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट 50 प्रतिशत की सीमा को आम तौर पर लागू करा रहे थे. मराठा आरक्षण पर महाराष्ट्र सरकार के फैसले को निरस्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी फैसले को ही आधार बनाया. 

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